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हिरासत में मौत(Custodial Death) के आरोपी पुलिसकर्मी को जमानत देने में सुप्रीम कोर्ट ने सख्त रुख अपनाने का आदेश दिया।

•Custodial Death के आरोपी पुलिस अधिकारी कोHC द्वारा गई जमानत को रद्द करने के लिए SC ने संविधान के अनु. 136 के तहत शक्ति इस्तेमाल की।

साथ ही एक अपवाद भी पेश किया।

• सुप्रीम कोर्ट ने मामले में झारखंड राज्य बनाम संदीप कुमार में अपने पहले के फैसले का भी हवाला दिया।

• अनुच्छेद 136 सुप्रीम कोर्ट को भारत में किसी भी अदालत या न्यायाधिकरण द्वारा पारित

किसी भी फैसले या आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अपील करने के लिए विशेष अनुमति देने यानी विशेष अनुमति याचिका (एसएलपी) देने की विवेकाधीन शक्ति देता है।

• हालांकि, यह शक्ति सशस्त्र बलों से संबंधित किसी भी कानून द्वारा गठित किसी भी अदालत या न्यायाधिकरण द्वारा पारित आदेशों पर लागू नहीं होती है।

• हिरासत में मौत(Custodial Death) वास्तव में जेल में हिंसा का एक रूप है।

इस हिंसा में मुख्य रूप से पुलिस हिरासत और न्यायिक हिरासत में हिंसा शामिल है।

• इनमें बलात्कार और यातना जैसी हिंसा भी शामिल है।

हिरासत में मृत्यु(Custodial Death से सुरक्षा से संबंधित प्रावधान:

संवैधानिक सुरक्षा:-

• अनुच्छेद 14: कानून के समक्ष समानता का अधिकार;

• अनुच्छेद 21: जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार (जीवन का अधिकार)।

• कानूनी सुरक्षा:-

IPC की धारा 330 और 331 हिरासत के दौरान अपराध स्वीकार करने के लिए मजबूर करने के लिए चोट पहुंचाने के लिए दंड का प्रावधान करती है।

उल्लेखनीय है कि आईपीसी की जगह अब भारतीय न्यायिक संहिता लेगी।

• दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 176 हिरासत में मृत्यु के मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा जांच का प्रावधान करती है।

Crpc की जगह अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता लेगी।

अन्य प्रकार की सुरक्षा:

• नागरिक और राजनीतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा लागू की गई है। भारत इसका हस्ताक्षरकर्ता देश है।

• डी.के. बसु बनाम पश्चिम बंगाल राज्य मामले में सुप्रीम कोर्ट ने जेल में बंद व्यक्तियों की सुरक्षा के लिए विशेष दिशा-निर्देश जारी किए थे।

• राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के दिशा-निर्देशों के अनुसार हिरासत में मृत्यु या बलात्कार की घटना के 24 घंटे के भीतर रिपोर्ट करना अनिवार्य है।

हिरासत में मौत(Custodial Death) को रोकने के लिए चुनौतियां:

भारत ने अभी तक “यातना के विरुद्ध संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन, 1997” की अभिपुष्टि नहीं की है।

भारत में यातना को रोकने के लिए राष्ट्रीय ढांचे का अभाव है।

न्यायिक कार्यवाही का लंबा चलना।

जब भी अपराधों और खासकर जघन्य अपराधों की संख्या में वृद्धि होती है,

तो पुलिस पर मामले की तह तक पहुंचने का बहुत दबाव होता है।

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