माता-पिता का लाड़ला : चौदहवां रत्न, भीवा(Babasaheb Ambedkar)
सन् 1890 तक रामजी को तेरह संतानें हुई। जब रामजी सूबेदार की फौजी टुकड़ी मध्यप्रदेश में इंदौर के पास महु छावनी में थी तब वे अपने पूरे परिवार के साथ यहीं रहते थे। यहीं मिलिट्री कैंप में 14 अप्रैल 1891 को भीमाबाई को पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। उस नवजात शिशु का नाम भीम(Babasaheb Ambedkar) रखा गया।
भीम अपने माता-पिता की चौदहवीं संतान थे। बाबासाहेब बाद में कभी हंसी में कहा करते थे कि मैं अपने माता-पिता का चौदहवां रत्न हूँ। परिवार मे उसे लाड़ से ‘भीवा’ कह कर पुकारते थे और बाद में वे भीमराव के नाम से प्रसिद्ध हुए। भीम के दादाजी नाथ संप्रदायी थे।
सूबेदार रामजी सकपाल बहुत मेहनती व धार्मिक प्रवृति के व्यक्ति थे। सुबह शाम घर मे प्रार्थना करते थे।
उन्हें संत कबीर, संत तुकाराम व अन्य संतों के भजन बहुत प्रिय थे।
वे अपने परिवार में होने वाली आध्यात्मिक चर्चा में बच्चों को भी शामिल करते थे।
अछूतों के लिए बंद थे स्कूल के दरवाजे(Babasaheb Ambedkar):
भीम बचपन से ही हष्ट-पुष्ट, चंचल व नटखट था वह अन्य बालकों पर रौब मारता था और उन्हें पीटता भी था।
उनके माता-पिता अक्सर भीम की शिकायतें लेकर रामजी के पास आते थे।
इस तरह प्रायः रोजाना भीम की शैतानियों की शिकायत माता-पिता के पास पहुँचती थी इससे रामजी सूबेदार तंग आ जाते थे। रामजी भीम को डाँटते धमकाते थे लेकिन मारते नहीं थे।
आखिर वे बच्चों का उज्जवल भविष्य चाहते थे लेकिन माता भीमाबाई अनुशासन सिखाने के लिए भीम की पिटाई कर देती थी
पिता रामजी सूबेदार अपने बच्चों को केवल आध्यात्मिक व नैतिक शिक्षा तक ही सीमित नहीं रखना चाहते थे बल्कि उज्जवल भविष्य के लिए स्कूली व सांसारिक शिक्षा पर भी विशेष ध्यान देते थे।
वे भीम को खूब पढ़ाना चाहते थे लेकिन हिन्दू समाज के कड़े नियमों के अनुसार भीम के लिए शिक्षा के द्वार बंद थे।
वहां सवर्ण हिन्दुओं के बच्चों को स्कूल जाता देखकर भीम की इच्छा भी स्कूल जाने की होती थी इसके लिए भीम बार-बार पिताजी से जिद करता था लेकिन यह मुश्किल था।
इसलिए रामजी बच्चों को घर पर ही पढाया करते थे।
दापोली(महाराष्ट्र में एक जगह) में कुछ समय रहने के बाद जब वे सतारा आए तो वहां भी स्कूल में अछूतों का एडमिशन असंभव था।
इस घोर अमानवीयता व अन्याय को भोगते हुए वे दुखी थे, मजबूर होकर एक दिन एक अंग्रेज आर्मी ऑफिसर के पास गये और निवेदन किया कि उन्होंने जीवन भर सेना में रहते हुए सरकार की सेवा की है और उनके ही बच्चों को ऐसे क्रूर बंधनों के कारण किसी स्कूल में एडमिशन नही मिल रहा है यह कैसी अमानवीय व्यवस्था है।
आखिर अफसर ने सुनी और नवम्बर 1900 में सतारा के आर्मी कैंप स्कूल में एडमिशन मिल गया।
बड़ा भाई आनंदराव भी भीम के साथ ही स्कूल पढ़ने जाने लगा।
स्कूल में जात-पांत व छुआछूत का शिकार भीम(Babasaheb Ambedkar):
स्कूल में हिन्दू सवर्ण बच्चे भीम व उसके बड़े भाई आनंदराव को साथ में बैंच पर बैठने नहीं देते थे।
दोनों भाई इसके लिए घर से टाट का एक टुकड़ा रोज साथ ले जाते थे और कमरे के बाहर बैठना पड़ता था। टाट के टुकड़े को भी स्कूल में नही रखने देते थे क्योंकि उसे छूने से स्कूल की अन्य चीजों के अपवित्र होने का डर था।
जब भीम को प्यास लगती थी तो नल की टोंटी से खुद पानी नहीं पी सकते थे।
नल की टोंटी चपरासी या किसी सवर्ण बालक द्वारा खोले जाने पर ही भीम व अन्य अछूत बालक पानी पी पाते थे, ऐसा नहीं होने पर वे कभी-कभी प्यासे ही रह जाते थे और घर आकर ही प्यास बुझाते थे।
पग-पग पर जातीय अपमान के कड़वे घूंट पीने पड़े
एक दिन भीम(Babasaheb Ambedkar) अपने बाल कटाने के लिए नाई के पास जाकर बोला, बाल कटाने है।
नाई नफरत से बोला, अरे तू तो अछूत है तेरे बाल मैं कैसे काट सकता हूं ? जा ! चला जा यहां से। इस अपमान से भीम को बहुत बुरा लगा, आंखें भर आई।
बड़ी बहन तुलसी ने भीम की व्यथा सुनी तो भीम को प्यार से पुचकारते हुए कहा, मेरे भाई रो मत.. यही तो इस समाज की रीत है, मैं बना देती हूं तेरे बाल ।
भैसों के बाल काटने वाला नाई भी भीम के बाल काटने से अपना धर्म भ्रष्ट होना मानता था
इसलिए उसकी बहन ही चबूतरे पर बैठा कर दोनों भाईयों के बाल काटती थी।
मानवतावादी ब्राह्मण गुरू ‘अंबेडकर’ का प्यारा था विद्यार्थी भीम
उसी सैकंडरी स्कूल में ही अंबेडकर सरनेम के दूसरे ब्राह्मण अध्यापक थे। वे भीम को बहुत प्रेम करते थे।
इंसानियत से परिपूर्ण वह अध्यापक भीम के प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे।
उन दिनों भीम दोपहर की छुट्टी के समय घर पर खाना खाने जाता था। घर बहुत दूर था।
अंबेडकर अध्यापक को इससे दुख होता था लेकिन भीम को खाना खाने के लिए घर जाने में बहुत मजा आता था क्योंकि घूमने की आजादी मिल जाती थी।
अध्यापक का भीम के प्रति प्रेम व मानवीय स्वभाव के कारण उन्होंने एक रास्ता निकाला।
वे अपने साथ रोटी-सब्जी बांध कर लाते थे। अब वे रोज दोपहर के समय भीम को बुलाकर अपने भोजन में से रोटी-सब्जी खाने को देते थे।
हालांकि छुआछूत के कारण वे ऊपर से ही भीम के हाथों मे रख देते थे लेकिन अपनेपन व स्नेह के साथ दिया वह भोजन भीम को बहुत स्वादिष्ट लगता था।
उस अध्यापक के मानवीय व्यवहार ने भीम को बहुत प्रभावित किया।
बाद में बाबासाहेब उस गुरु की कृपा को याद करते थे तो गला भर आता था, आंखें नम हो जाती थी, ” मुझे यह कहने में अभिमान महसूस होता है कि उस प्रेम की साग रोटी का मिठास ही कुछ और था। सच्चे रूप से उनका मेरे प्रति बड़ा प्रेम था।
गुरु का सरनेम, भीम का सरनेम बना:
बालक भीम का सरनेम शुरू में आंबाडवेकर था, अंबेडकर नहीं। दरअसल महाराष्ट्र के ज्यादातर सरनेम अपने गांव, पैतृक स्थान के नाम के साथ “कर” लगाकर लगाते है। आजकल यह प्रचलन काफी कम हो गया है।
भीम के दादा मालोजीराव दापोली के पास आंबाडवे गांव के निवासी होने के कारण लोग उनके परिवार को आंबाडवेकर उपनाम से पहचानते थे।
स्कूल में अंबेडकर अध्यापक भीम को दोपहर में साग रोटी देते थे उन्होंने भीम को बुलाकर कहा कि यह तेरा आंबाडवेकर सरनेम बोलने में थोड़ा अटपटा लगता है उससे तो मेरा उपनाम अंबेडकर अच्छा है अब आगे से तू भी अंबेडकर उपनाम लगाया कर और उस अध्यापक ने रजिस्टर में भीम का सरनेम भी अंबेडकर कर दिया।
अंबेडकर गुरुजी बुढापे में भी अपने प्रिय शिष्य भीमराव अंबेडकर को याद करते रहते थे।
विदेश में पढ़ाई:
बाबा साहब(Babasaheb Ambedkar) द्वारा B.Aकी पढ़ाई करने के बाद वे बड़ौदा रियासत में लेफ्टिनेंट पद पर नियुक्त हुए। यहां भी उनके साथ अफसरो ने जातिवाद का शोषण किया।
कुछ समय बाद विदेश में शिक्षा के लिए बड़ौदा के महाराज द्वारा स्कॉलरशिप दी गई।
फिर वे कोलंबिया यूनिवर्सिटी में पढ़ाई के लिए अमेरिका गए। वहां उन्होंने p.hd की।
अमेरिका में रहते-रहते उनकी ज्ञान प्राप्त करने की भूख इतनी बढ़ गई कि उन्होंने लगभग 2000 पुरानी किताबें खरीद ली।
पुस्तकें ही उनकी एकमात्र सबसे बड़ी दोस्त थी
महामानव का महापरिनिर्वाण:
सुबह 6:30 हमेशा की तरह उनकी पत्नी दिल्ली के अपने घर के बगीचे में थोड़ी देर टहलकर बाबा साहब(Babasaheb Ambedkar) को जगाने के लिए गई उनके पैर एक तकिया पर आराम की स्थिति में थे उन्होंने बाबा साहब को जगाने की कोशिश की लेकिन उनके शरीर में कोई गति नहीं देखकर वह काफी डर गई।
उन्हें मालूम हुआ कि उनके पति हमेशा के लिए गहरी नींद में सो चुके हैं। 6 दिसंबर 1956 को यही वह दिन था जब इस महान इंसान ने अपनी आखिरी सांस नींद में ही ली।